सम्राट चंद्रगुप्त अपने मंत्रियों के साथ एक विशेष मंत्रणा में व्यस्त थे कि प्रहरी ने सूचित किया कि आचार्य चाणक्य राजभवन में पधार रहे हैं ।
सम्राट चकित रह गए । असमय गुरू का आगमन ! वह घबरा भी गए । अभी वह कुछ सोचते ही कि लंबे-लंबे डग भरते चाणक्य ने सभा में प्रवेश किया । सम्राट चंद्रगुप्त सहित सभी सभासद सम्मान में उठ गए । सम्राट ने गुरूदेव को सिंहासन पर आसीन होने को कहा ।
आचार्य चाणक्य बोले, ”भावुक न बनो सम्राट, अभी तुम्हारे समक्ष तुम्हारा गुरू नहीं, तुम्हारे राज्य का एक याचक खड़ा है, मुझे कुछ याचना करनी है ।”
चंद्रगुप्त की आँखें डबडबा आई । बोले, ”आप आज्ञा दें, समस्त राजपाट आपके चरणों में डाल दूं ।”
चाणक्य ने कहा, ”मैंने आपसे कहा भावना में न बहें, मेरी याचना सुनें ।”
गुरूदेव की मुखमुद्रा देख सम्राट चंद्रगुप्त गंभीर हो गए और बोले -”आज्ञा दें ।
चाणक्य ने कहा, ”आज्ञा नहीं, याचना है कि मैं किसी निकटस्थ सघन वन में साधना करना चाहता हूं । दो माह के लिए राजकार्य से मुक्त कर दें और यह भी स्मरण रहे वन में अनावश्यक मुझसे कोई मिलने न आए, आप भी नहीं । मेरा उचित प्रबंध करा दें ।"
चंद्रगुप्त ने कहा, ”सब कुछ स्वीकार है ।”
दूसरे दिन प्रबंध कर दिया गया । चाणक्य इच्छानुसार वन चले गए ।
अभी उन्हें वन गए एक सप्ताह भी न बीता था कि यूनान से सेल्युकस (सिकन्दर का सेनापति) अपने जामाता चंद्रगुप्त से मिलने भारत पधारे । उनकी पुत्री हेलेन का विवाह चंद्रगुप्त से हुआ था।
दो चार दिन के बाद उन्होंने चाणक्य से मिलने की इच्छा प्रकट कर दी । सेल्युकस ने कहा, ”सम्राट, आप वन में अपने गुप्तचर भेज दें । उन्हें मेरे बारे में कहें । वह मेरा बड़ा आदर करते है । वह कभी इन्कार नहीं करेंगे ।“
अपने श्वसुर की बात मान चंद्रगुप्त ने ऐसा ही किया। गुप्तचर भेज दिए गए ।
चाणक्य ने उत्तर दिया, ”ससम्मान सेल्युकस वन लाए जाएं, मुझे उनसे मिल कर प्रसन्नता होगी ।” सेना के संरक्षण में सेल्युकस वन पहुंचे ।
औपचारिक अभिवादन के बाद चाणक्य ने पूछा, ”मार्ग में कोई कष्ट तो नहीं हुआ ।”
इस पर सेल्युकस ने कहा, ”भला आपके रहते मुझे कष्ट होगा ? आपने मेरा बहुत ख्याल रखा ।“
न जाने इस उत्तर का चाणक्य पर क्या प्रभाव पड़ा कि वह बोल उठे –
“हां, सचमुच मैंने आपका बहुत ख्याल रखा ।”
इतना कहने के बाद चाणक्य ने सेल्युकस के भारत की भूमि पर कदम रखने के बाद से वन आने तक की सारी घटनाएं सुना दी, उसे इतना तक बताया कि सेल्युकस ने सम्राट से क्या बात की, एकांत में उसकी अपनी पुत्री से क्या बातें हुईं। मार्ग में किस सैनिक से उसने क्या पूछा।
सेल्युकस व्यथित हो गए । बोले, ”इतना अविश्वास ? मेरी गुप्तचरी की गई । मेरा इतना अपमान !“
चाणक्य ने कहा, ”न तो अपमान, न अविश्वास और न ही गुप्तचरी । अपमान की तो बात मैं सोच भी नहीं सकता ! सम्राट भी इन दो महीनों में शायद न मिल पाते । आप हमारे अतिथि हैं । रह गई बात सूचनाओं की तो वह मेरा ”राष्ट्रधर्म” है। आप कुछ भी हों, पर विदेशी हैं । अपनी मातृभूमि से आपकी जितनी प्रतिबद्धता है, वह इस राष्ट्र से नहीं हो सकती, यह स्वाभाविक भी है । मैं तो साम्राज्ञी की भी प्रत्येक गतिविधि पर दृष्टि रखता हूं । मेरे इस ‘धर्म‘ को अन्यथा न लें, मेरी भावना समझें ।“
सेल्युकस हैरान हो गया । वह चाणक्य के पैरों में गिर पड़ा । उसने कहा, ”जिस राष्ट्र में आप जैसे राष्ट्रभक्त हों, उस देश की ओर कोई आँख उठाकर भी नहीं देख सकता ।”
सेल्युकस स्वदेश वापस लौट गया ।
#राष्ट्रधर्म प्रथम
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