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Saturday, September 7, 2024

हीन भावना से ग्रस्त को यह लगता है कि कहीं कोई हमको छोटा न समझ ले

 हीन भावना से ग्रस्त को यह लगता है कि कहीं कोई हमको छोटा न समझ ले,


उसे किसी दूसरे को अभिवादन करने में भी हेठी मालूम पड़ती है,


यदि हम उनको हाथ जोड़ देंगे तो लोग कहीं हमको छोटा न समझ लें !


और समर्थ को कोई डर नहीं, वह किसी को भी हाथ जोड़ लेता है, बात कर लेता है, उसे मालूम है वह तो जस का तस रहेगा ..


उसका न मान न अपमान !!


कृष्ण एक बार कीचड़-मिट्टी से खेलकर लिपे-पुते मैया के सामने पहुँचे,


मैया कुपित क्रोधित हो उठी - झिड़कते हुए बोली - 'क्या रे ! तू पिछले जन्म में सूकर था ?'


त्वं सूकरोsसि गतजन्मनि पूतनारे !


लाला मन ही मन मुसकराते सोचने लगे - हे राम! मैया को किस कल्प का वराहावतार दीख रहा - श्वेत या कृष्ण ?


जिसको मछली, कछुआ, घोड़ा - बोलते हों और उस तत्व पर रंच न प्रभाव पड़ता हो सो है ईश्वर !


कृष्ण को 'कीचड़' प्रिय है


कोई उपालम्भ, उलाहना दे

भला-बुरा कहे तो सुन कर मुस्कुराते हैं


ब्रजकर्दमेषु - ब्रज में अनेक तरह के कीचड़ में शरीर घसीटते हैं


पंकाभिषिक्त - कीचड़ से नहाये हुए 


यानी जिसको समर्थता प्राप्त करनी हो उसे आक्षेप में लिपटने का अभ्यास कर लेना चाहिए

_✍🏻सोमदत्त 


!!कर्षति आकर्षति इति कृष्णः!!


कृष्ण के अनंत स्वरूप हैं। अपनी अपनी मूल प्रकृति के अनुसार भारत की हर भाषा, हर बोली, हर  सांस्कृतिक-समूह, हर उपासना पद्धति, हर प्रान्त-जनपद ने कृष्ण को बारम्बार सुमिरा है।


हर दर्शन परम्परा, हर एक आयातित निर्यातित विचारधारा ने कृष्ण को येन केन प्रकारेण भजा है।

अद्वैत, द्वैत, द्वैताद्वैत हो या आधुनिक लेफ्टिस्म, फेमिनिज्म़ जैसे वाद। कृष्ण का संक्रामक आकर्षण सबको है।


शांकर दार्शनिकों को लुभाता कृष्ण-काली ऐक्य हो या राधा-कृष्ण अद्वैत हो। तनिक स्त्रैण सौंदर्य वाले, तीन माताओं वाले सौभाग्यशाली त्रयम्बक 'मम्मास् ब्वाय' मातृशक्तियों को लुभाते हैं।तो एंटी इस्टेब्लिशमैंट प्रकृति वालों को  इन्द्र,वरुण,कुबेर,अग्नि,ब्रह्मा,काम,नाग का मानमर्दन करने वाले क्रांतिकारी देवदमन श्रीकृष्ण पसंद आते हैं। नागरों को द्वारिकाधीश, ग्राम्यों को गोकुल का लल्ला,बौद्धिकों को गीता-गीतकार, प्रेमियों को राधावल्लभ, नीतिज्ञों को महाभारत-सूत्रधार पसंद हैं। संगीत-रस मर्मज्ञ वंशी पर मोहित हैं, टैगोर कह चुके 'तोमार वांशि आमार प्राणे बेजे छे'। मल्ल योद्धा को चाणूर-मुष्टिक मर्दनम् पर आसक्ति है। और सुकुमारियों के आकर्षण पर कहने ही क्या।


अनासक्त योगीश्वर महादेव तक तो आसक्त हैं।

यशोदा का आदेशात्मक स्वर पहचानिए शिव के लिए:-" जब-जब मेरौ लाला रोबै,तब-तब दरसन दीजै।"


मिथक और इतिहास की परिधि से बहुत बाहर कृष्ण का एक रूप भारत भाव-रूप भी है। गोप संस्कृति का गोपाल दक्षिण में कण्णन है। भारतीय कलाओं का मादन-मोहन-रमण-आकर्षण तत्व उड़िया में जगन्नाथ है।वही दक्षिण में तिरुपति, वेणुगोपाल और वरदराज हैं तो उत्तराखंड में बदरीनाथ हैं ।मराठों के  बिठोवा गर्वीले गुजरातियों के द्वारकानाथ और राजपूताने में श्रीनाथ हैं।


कृष्ण के राष्ट्र-नायक स्वरूप और राष्ट्र-निर्माण की रचना प्रक्रिया को समझना होगा। युगधर्म का यही संदेश है।


ध्यान रहे कि उस समय अश्वमेध राजसूय आदि यज्ञ श्रेष्ठता की स्वीकृति थे कोई स्वामित्व या दास्य बोध नहीं। कब्जा करने की परिपाटी तो संभवतः मगध के नन्द वंश से शुरू हुई। उसके पहले एक राज्य की पहचान उसके देवता, ध्वज, संस्कृति, गुरू, भोजन शैली, समृद्धि,कला आदि से अधिक थी भौगोलिक स्थिति से कम।


एक तरफ जैसे जैसे सरस्वती का जल सूखता जाता है वैसे ही मगध और मथुरा की शत्रुता और प्रगाढ़ होती जाती है। हिरण्यवती की स्वामिनी अन्नवती सरस्वती के प्रवाह-क्षेत्र में क्रमशः आती रिक्तता के कारण एक बड़ी जनसंख्या गंगा-आप्लावित भूभाग की तरफ शनैः शनैः 'पलायन' कर रही है। मथुरा और मगध के वैवाहिक संबंधों ने वैमनस्य कम जरूर किया है पर यह पर्याप्त नहीं। इस वैमनस्य के मूल में शक्ति असंतुलन है। मगध मध्य भारत के अपने यादव सहयोगियों चेदिराज(बुंदेलखंड), विदर्भराज भीष्मक, रूक्मी, करवीर-राज (आज का कोल्हापुर) आदि के कारण अति महत्वाकांक्षी है।


दूसरी तरफ 'कुरु' राजवंश है जिसपर अनेक राजा रजवाड़ों रियासतों की भृकुटि पहले से ही टेढ़ी है। गांधार क्रुद्ध हैं कि अन्धे धृतराष्ट्र से गांधारी का विवाह उनके साथ विद्रूप छल है। उनका श्रेष्ठतम रणनीतिकार 'राजकुमार शकुनि' उसी छल के बदले के लिए हस्तिनापुर में ही विराज रहा है। काशीनरेश स्पष्टतः खिन्न और अप्रसन्न हैं कि उनकी तीन अनिंद्य सुंदरी राजकुमारियों को भीष्म अपहृत कर ले गए। अपहरण के बाद का अपमान तो किसी भी स्त्री का भयंकरतम भीषणतम अपमान होगा।


कुरुवंश का अर्थ तंत्र 'आदिबद्री' से निकलने वाली वेदस्मृति सरस्वती पर निर्भर है। वेदवती सरस्वती की कलाएं दिन प्रतिदिन क्षीण हो रही हैं। मुख्य धारा के सूखने से इसकी सहायिकाएं  कालिन्दी यमुना और सदानीरा शतद्रु अर्थात सतलुज भी क्षीणकाय होती जा रही हैं। और क्षीण हो रही है 'कुरु' की आभा। एक जड़त्व घेर रहा है उसे।


उधर जड़मति किंकर्तव्यविमूढ 'पांचाल'! कभी यह कुरु और मगध के बीच 'बफर स्टेट' रहे। अभी इनकी स्थिति इन दो महाशक्तियों के बीच 'स्विंग स्टेट' की है। पर जैसा कि द्रौपदी के स्वयंवर के समय मागध सामंतों, राजकुमारों और राज्याश्रयी गुप्तचरों की उपस्थिति से सिद्ध होता है कि पांचाल अब मगध की तरफ झुकने लगे थे। तिस पर द्रोण द्वारा अपने पुराने मित्र पांचालनरेश को बलपूर्वक दण्डित करना। 


हालांकि इस दण्डित करने के प्रयास में पाण्डुपुत्र राजकुमार युधिष्ठिर एक अलग स्तर का राजनीतिक 'एक्यूमेन' प्रदर्शित करते हैं जब वह दुर्योधन के पांचालों द्वारा परास्त होने के बाद अर्जुन भीम के साथ बिना कुरु-वंश के ध्वज के लड़ते हैं।


यहाँ दो सगे वृष्णिवंशी भाई जो सहोदर भी हैं और नहीं भी। संकर्षण बलराम और कृष्ण जो महाविलासी अभिमानी कंस के भान्जे हैं अपने आततायी मामा का वध कर देते हैं। कृष्ण दोनों मामियों को ससम्मान गिरिव्रज (आधुनिक राजगीर) भेजते हैं। मथुरा में एक रिक्तता का निर्माण हो जाता है। नए राजा 'एक रबर स्टैम्प' हैं और बहुत हद तक 'प्रो-मगध साफ्ट पालिसी' रखते हैं।


उधर चालाक मगध मथुरा पांचाल और कुरु की वास्तविकता को समझता है। श्रीमद्भागवत के अनुसार जरासन्ध मथुरा पर कुल सत्रह बार आक्रमण करता है। पर हलधर-चक्रधर वृष्णि-बंधु हर बार उसके आक्रमण को विफल करते हैं। अन्तिम अठारहवें आक्रमण की योजना जरा अलग है। पश्चिम से पर्शियन म्लेच्छराज कालयवन जो लूटपाट की नीयत रखता है और पूर्व से मागध जरासंध जो यदुकुल के विनाश और मथुरा पर अधिकार की मंशा रखता है, दोनों एक साथ आक्रमण करते हैं।


'रणछोड़' तपस्वी मुचुकुन्द की सहायता से कालयवन का वध करते हैं फिर दोनों भाई दक्षिण दिशा में भाग लेते हैं। 'यदु' की प्रभाव सीमा के बाहर जाकर वह मगध के हितैषी करवीर-नरेश श्रगाल का वध करते हैं। मागध सैन्य-शक्ति से बचने छिपने के क्रम में दोनों भाई गोमांतक प्रदेश यानि कि आज के गोवा और कोंकण पहुंचते हैं।


एक घनघोर तटीय वन में मागध सेना को घेर वहाँ आग लगा देते हैं। हताश निराश जरासंध वापस मगध लौट जाता है।


यहाँ से दक्षिणापथ मार्ग पर यह दोनों वृष्णिवंशी श्रीविद्यापरमाचार्य विष्णु के छठे अवतार'जामदग्नेय परशुराम' से मिले। श्री हरिवंश के अनुसार तो कृष्ण को सुदर्शन चक्र भी यहीं परशुराम से ही प्राप्त हुआ। 


बार बार के आक्रमणों से प्रजा की रक्षा के लिए यदुकुल की राजधानी द्वारिका स्थानांतरित की गई।शूरसेन यादव पूरे सौराष्ट्र, पश्चिमी घाट, दक्खिनी पठार और सिंध तक फैल गए। बिल्कुल जैसा विस्तार बहुत बाद में मराठों का हुआ था एक बार।


यमुना सरस्वती का लगभग बंजर इलाका पांडवों को दिया और गंगा बेसिन रिजर्व का उपजाऊ क्षेत्र दुर्योधन ने अपने पास रखा था। यही समय था जब भारतीय राजनीति में इन दो वृष्णि वंशी भाइयों का शानदार पदार्पण हुआ। वाचाल छलिया अनुज को पता है कितना कैसे कहाँ कब बोलना है उधर महीधर अग्रज कब चुप रह जाना है यह जानते हैं, सुभद्रा हरण और महाभारत युद्ध इसके प्रत्यक्ष उदाहरण हैं। 


कृष्ण बलराम ने वंचित पाण्डवों के साथ सहृदयता का संबंध बना लिया। यहीं योगेश्वर श्रीकृष्ण को एक सुयोग्य 'निमित्तमात्र सव्यसाचिन्' भी मिल जाते हैं। यह वृष्णि-पाण्डव गठबंधन प्रजा की अभिलाषाओं के अनुरूप ' खाण्डव दाह' भी करते हैं। 'कृष्णार्जुन' से भयभीत अनार्य 'नाग' और असुर सिंधु घाटी की उपरी उपत्यकाओं की तरफ भागने को विवश होते हैं जहाँ 'तक्षक' के नेतृत्व में तक्षशिला नगर बसाया जाता है।


खाण्डवप्रस्थ की इस घटना के समय ही युद्ध बंदी 'मयासुर' को अभयदान देकर कृष्ण अनार्यों का भी हृदय जीत लेते हैं। इन्हीं अनार्यों के विश्वकर्मा के माध्यम से इंद्रप्रस्थ और द्वारिका का निर्माण कराया जाता है जो भारतीय स्थापत्य के अद्भुत उदाहरण बने।


यह द्वारिका-इंद्रप्रस्थ गठबंधन वैसे तो माधवी राजनीतिक शैली थी पर इसे कृष्णार्जुनी आक्रमण समझा गया जो कुरु के विरोध तथा मगध के विकल्प के तौर पर उभर रही थी। भ्रमित पांचाल सदा के लिए इनके साथ हो लिए। 


उधर जरासंध का प्रभाव अवन्तिका तक पहुँच रहा था जहां उसके पक्षधर विन्द और अनुविन्द का राज्य था। मगध कुरू और द्वारका को घेरने के प्रयास में था तो उधर कृष्ण ने विदर्भ की राजकुमारी रूक्मिणी, उज्जैन की राजकुमारी तथा अपने वंश की भी एक कन्या से विवाह संबंध बनाकर अपनी स्थिति बहुत मजबूत कर ली।


पाण्डव अभी भी कुरू वंश के ही भाग थे। तो,दुर्योधन भी कहाँ कम रणनीतिकार थे। मित्र कर्ण को अंग देश (उत्तरी बंगाल/उड़ीसा) ही क्यों दिया? क्योंकि मगध को वहाँ से नियंत्रित किया जा सकता था और सूर्यपुत्र कर्ण कलिंग में हुए एक द्वन्द युद्ध में पहले ही जरासन्ध को परास्त कर चुके थे।


यहाँ से कृष्ण के राजनीतिक कौशल का असल खेल शुरू होता है। कृष्ण अपने हर स्वरूप में अतुलनीय हैं पर थोड़ी 'पोएटिक फ्रीडम' के साथ उनकी तुलना चाणक्य या फिर गाडफादर-१ के डान कार्लियोन से कर सकते हैं।


कृष्ण के उद्देश्य और द्वारिका-इन्द्रप्रस्थ धुरी के लिए तात्कालिक चुनौती थी कि मगध नरेश जरासंध को भारत के राजनीतिक परिदृश्य से सदा सदा के लिए हटा दिया जाए। यहाँ कृष्ण-अर्जुन-भीम की तिकड़ी ने लगभग वैसा ही गेम प्लान बनाया जैसा कि शिवाजी ने शाइस्ता खान के लाल महल में अंजाम दिया।


जरासंध और भीम को द्वन्द युद्ध के लिए तैयार कर लेना एक बहुत बड़े मनोवैज्ञानिक के ही वश की बात थी। लक्षणा में कहा जाए तो एक तरफ साठ हजार हाथियों के बल वाला वृद्ध जरासंध जिसकी मृत्यु का तरीका रहस्य है दूसरी तरफ दस हजार गजशक्ति युक्त युवा भीम जिसे आश्वस्त किया गया है कि जरासंध अपराजेय नहीं है क्योंकि कुछ वर्ष पहले कर्ण के हाथों वह पहले पराभव फिर क्षमादान प्राप्त कर चुका है।


भीम के हाथों जरा की मृत्यु के बाद कृष्ण कामरूप (असम) के आततायी शासक नरकासुर को मारकर उसके पुत्र भगदत्त को वहाँ प्रतिष्ठित करते हैं। जरासंध के पुत्र सहदेव की भगिनी का विवाह सुंदर नकुल से कराने का प्रस्ताव भी होता है। पश्चात, पौंड्र प्रदेश(मध्य बंगाल) के नकलची राजा पौंड्रक का वध करते हैं।


चंद्रवंश और सूर्यवंश ने भी एक बड़े समय तक जिस यज्ञ के आयोजन का साहस न किया उस 'राजसूय' के लिए महाराज युधिष्ठिर कैसे तैयार हो गए? इस रहस्य के सूत्रधार भी कृष्ण ही थे। अर्जुन भीम सात्यकि धृष्टद्युम्न आदि के भुजबल कृष्ण के चातुर्य और युधिष्ठिर की धर्मनिष्ठा ने अंग को छोड़ समूचे पूर्वी और पूर्वोत्तर क्षेत्र को अपना बना लिया। नागकन्या उलूपी, मणिपुर की चित्रांगदा आदि से अर्जुन के विवाहों ने भी इन्हें शक्ति दी। राजसूय के समय शिशुपाल वध ने इनकी शक्ति को आधिकारिक प्रतिष्ठा दी।


दूसरे वृष्णि वंशीय शेषावतार संकर्षण की तीर्थयात्राओं ने भारत को और मजबूती से जोड़ने का काम किया। वह वर्तमान पाकिस्तान के अटक में सिन्धु-कुभा संगम तक गए।  


रोहिणीनन्दन सीरपाणी अपने प्रतिलोम सरस्वती यात्रा के क्रम में प्रभास, पृथुदक, त्रितकूप, बिंदुसर, चक्रतीर्थ नैमिष, विशाल, ब्रह्मतीर्थ, सरयू, हरिद्वार, गोंती, गंडकी,गया, शोणभद्र, विपाशा,परशुराम क्षेत्र,वेणा, पंपा, सप्तगोदावरी,दुर्गा देवी, त्रिगर्त, केरल,श्रीरंग, मदुरै, दण्डकारण्य, अर्या देवी, कांची, कावेरी, कामोष्णी, सेतुबंध, कृतमाला,पयोष्णी, ताम्रपर्णी, नर्मदा अनेकानेक स्थानों को एकसूत्र जोड़ते चले गए।


सम्पूर्ण भारत और भारतवंशी उन वृष्णिवंशी भाइयों का ऋणी है। 


धूमधाम से इनका जन्मोत्सव मनाया जाए।


सभी को शुभकामनाएं, बधाई


गोपिका-वृन्द-मध्यस्थं, रास-क्रीडा-स-मण्डलम्।

क्लम प्रसति केशालिं, भजेऽम्बुज-रूचि हरिम्।।

✍🏼मधुसूदन उपाध्याय


श्रीकृष्‍ण और यूनान के प्रसंग...

#जन्माष्टमी

भारत में धर्म और आस्‍था के मूलाधार श्रीकृष्‍ण को माना गया है। उनके गीता में कहे गए वचनों पर कौन विश्‍वास नहीं करता। भारत में छपने ज्‍यादा छपने और बिकने वाला ग्रंथ ही श्रीमद़भगवदगीता है। किंतु, यूनान की माइथोलॉजी बताती है कि श्रीकृष्‍ण का यूनान के साथ गहरा संबंध रहा है। सबसे पहले प्रो. भांडारकर और जेकोबी ने इस संबंध में अपने मत दिए थे। 


हाल ही मेरे परम सहयोगी इंडोलॉजी के विद्वान प्रो. भंवर शर्मा, उदयपुर ने यूनानी माइथोलॉजी का अनुवाद किया तो पाया कि भारतीय कृष्‍णकथा का अद़भुत संबंध यूनान से रहा है। एक-एक कथा प्रसंग में यूनान पैठा हुआ है। फिर, श्रीकृष्‍ण के साथ जिस मुद्रा का संबंध हरिवंश में बताया गया है, वह 'दीनार' है। यह कहां की मुद्रा है, हरिवंश में आया है - 

माथुराणां च सर्वेषां भागा दीनारका दश।।

सूतमागध बंदीनामेकैकस्‍य सहस्रकम़। (हरिवंश, विष्‍णुपर्व 55, 51-52)


पढने वालों को गुस्‍सा भी हो सकता है, फिर यह भी कहा जा सकता है कि भारत से ही यह कथा यूनान गई... भारतवर्ष की प्रभाव क्षेत्र की सीमा आज से कहीं ज्यादा थी।


उनके अनुवाद-अध्‍ययन के कुछ प्रसंग : 


क्रीट के राजा देवक्‍लीयन का सबसे बडा पुत्र हेलेन सभी ग्रीकों का पिता कहा गया है। इससे इओनियन, एकियन, एओलियन और डोरियन-- चार वंश चले। हेलेन, हेली, हेलीली आदि श्रीकृष्‍ण के ही नाम हैं - गोपालसहस्रनाम स्‍तोत्र में आया है - कोलाहलो हली हाली हेली हल धरो प्रियो। (श्‍लोक 20)


क‍था आई है कि स्‍वर्ग के राजा यूरेनस ( तुलनीय -उग्रसेन) को क्रोनस (कंस) राज्‍य छीनकर अपनी बहन ह्रिया को (पत्‍नी बनाकर, महाभारत काल में ऐसी परंपरा के प्रसंग महाकाव्‍य में आए हैं) अपने अधिकार में कर लेता है। दिवंगत होते हुए उसकी माता पृथवी और पिता यह भविष्‍य करते हैं- क्रोनस को उसके बहन के पुत्रों में से एक राजसिंहासन से हटाएगा। वह पांच बच्‍चों को जिंदा खा गया। बहन ह्रिया घबरा गई। उसने अगले पुत्र जयस (श्रीकृष्‍ण का पर्याय जय : पांचजन्‍यकरो रामी त्रिरामी वनजो जय, गोपालसहस्रनाम 47) को जब पैदा किया तो नील नदी ( तु. यमुना) में स्‍नान कराकर भूमि को सौंप दिया जो कि पर्वतीय प्रदेश में ( तु. गोवर्धन पार के गांव में) छिपा आई। वनदेवी इयो (गायों) और अजदेवी (वृष्णि, बकरी) ने उसका लालन पालन किया। कोनस जब ये जान गया तो ह्रिया ने उसे कपडे में पत्‍थर बांधकर दे दिया। वह उसे भी खा गया। जब उसे धोखे का पता चला तो जेयस नाग (कालिय) बन गया।


 यह जेयस इडा के पहाडों में बसे ग्‍वालों के बीच बडा हुआ और तरकीब से क्रोनस का पानेरी बना। एक बार उसने क्रोनस को कुछ ऐसा पिला दिया कि उसके पेट से जयस के पूर्व भाई-बहन बाहर आ गए जिन्‍होंने जयस को अपना मुखिया चुना। जेयस ने क्रोनस को अपने वज्र से मार गिराया।


यूनानी माइथोलॉजी के मुताबिक जेयस की पहली विजय, पहली सदी ई. पूर्व के लेखक थालस के अनुसार टाय के घेरे में 322 साल पहले हुई, अर्थात् 1505 ईसा पूर्व। अधिकांश विद्वानों ने कृष्‍ण व कंस का इतिहास में यही काल तय किया है।

 

इस कथा में एराधिन के साथ जयस के संबंध राधा-कृष्‍ण के प्रसंगों के परिचायक है। जेयस ने बैल का रूप धरकर लीबिया की राजकन्‍या यूरोपी (तु. रुकमिणी) का हरण किया। उससे तीन पुत्र हुए मीनो, राधामंथिस और सर्पदन। मीनों क्रीट के शासक हुए और राधामंथिस स्‍मृतिकार। मीनों की पत्‍नी पेसिफी हुई जो सबके लिए चमक लिए थी, अर्थात् कीर्ति। पुराणों में वृषभानु की पत्‍नी का नाम भी कीर्ति ही आया है। 


अगली एक कथा में एद्रोस्‍टस ( तु. द्रुपद) की पुत्री देयदामिथा (द्रोपदी) चचेरे भाइयों के रूप में शतम् (कोरव) और नेस्‍टर (घोंसले वाला, शकुनी) आदि के आख्‍यान है...। है न भारतीय पुराणों की कथा की साम्‍यता रखने वाला प्रसंग...। यवनों ने विदिशा में हेरक्‍लीज का स्‍तंभ बनाया। यह हेरक्‍लीज ही हरिकृष्‍ण है जो ग्रीक साहित्‍य में बहुत महत्‍व रखता है। (न्‍याय, अजमेर के दीपावली अंक, 1962 में प्रकाशित प्रो. शर्मा का लेख और साक्षात्‍कार पर आधारित)

✍🏻श्रीकृष्ण जुगनु


सिन्ध में सूख रहे हैं, किरशन जी के पोतड़े!!

लेखक- केसरीसिंह सूर्यवंशी

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ऐसा नहीं है कि जन्माष्टमी की धूम केवल मथुरा- वृंदावन के आस पास ही रहती है। यह पूरे अखण्ड भारत में नाना व्यंजना से मनाया जाता है।

मैं आपको सिन्ध(पाकिस्तान) के नगरपारकर आदि क्षेत्रों की जन्माष्टमी का वृतांत सुनाता हूँ। यहाँ रहने वाले हिन्दू, जिनमें अधिकांश दलित-पिछड़े वर्ग के हैं, कैसे भगवान के आगमन की प्रतीक्षा कर रहे हैं?

अभी भी यहाँ दूर दराज की छोटी बस्तियों में हिन्दू रहते हैं।

यहाँ बस्ती में कोई एक परिवार अपने घर पर जन्माष्टमी मनाने का सबको निमंत्रण देता है। सामान्यतः जिस परिवार को नए बालक के जन्म की आशा है, वहाँ यह आयोजन रखा जाता है। उस दिन 8 पुरूष और 8 महिलाओं को दातुन दिया जाता है, वे व्रत रखते हैं और व्रत यजमान के घर ही खोला जाएगा।

जन्माष्टमी की सुबह से ही इस घर में गहमा गहमी शुरू हो जाती है। महिलाएं हरिजस(भजन) गाते हुए तालाब से मिट्टी लाती हैं। फिर Y आकर की केर की लकड़ी को उल्टा कर भगवान के बालरूप की प्रतिमा बनाई जाती है। दोनों हाथों के लिए लकड़ी का एक बड़ा चम्मच, जिसे डोही कहते हैं, वह बांध कर मिट्टी से ढंक कर, ऊपर बहुत सुंदर चेहरा बनाया जाता है।

यह सब स्थानीय महिलाएं ही करती हैं। प्रायः हर घर से कोई न कोई वस्तु आती है।

 सभी लोग बनाने की इस प्रक्रिया को बहुत कुतूहल से देखते हैं। कौड़ी से दांत, कांच की टिक से आंखें बनाई जाती है। थोड़ा सूखने पर बहुत सुंदर रंगों से रंगा जाता है। इस सारी अवधि में उन्हें एक छोटी खाट पर खड़े रखा जाता है और छोटे बच्चों को जो त्रिभुजाकार लंगोट पहनाई जाती है, उसमें लपेट कर रखते हैं। इसे ही श्री कृष्ण भगवान का पोतड़ा कहा जाता है।

लोक में बरसात को लेकर यह आश्वासन भी चलता है कि किरसन जी के पोतड़े धोने को एक बार बरसात जरूर आएगी।

 फिर किसी घर से छोटे बच्चे की नाप के चमकीले नए कपड़े लाकर पहनाए जाते हैं। इसके बाद उस घर के सबसे कीमती और भारी गहने, गले में कण्ठी और निम्बोली, आड, कमर पर करधनी, पैरों में पायल, हाथों में चांदी के ब्रेसलेट, घड़ी आदि पहनाए जाते हैं। सिर पर पगड़ी और कलँगी , नीचे धोती, कन्धे पर अंगोछा, ऊपर लपटन, बहुत शानदार श्रृंगार होता है।

इसके बाद उस घर में मेला सा शुरू हो जाता है। हर घर से मक्खन और मिश्री, प्रसाद, फल, रुपये वगैरह लाकर चढ़ाए जाते हैं। रात्रि में घर के आंगन में उन्हें उत्तराभिमुख बिठाया जाता है। लालटेन और दीपक से रोशनी की जाती है। अगर,तगर, धूप से वातावरण सुगन्धित बनाया जाता है।

कई जगह मौलवियों से नजर बचाकर पुराने मुसलमान भी आते हैं।

बुजुर्ग मुस्लिम महिलाएं बताती हैं कि इस दिन किरशन जी को मक्खन चढ़ाने से बच्चे को सांस रोग कभी नहीं होता। तो वे महिलाएं जिनके छोटे बच्चों को सांस रोग है, वे एक कटोरी में मक्खन और पोस्त(खसखस) दाना रात भर मूर्ति के आगे रखवाती हैं और सुबह अपने बच्चों को चटाती हैं।

 यहीं पर रात भर भजन होते हैं। कभी पुरूष गाते हैं , तन्दुरे, ढोलक, घड़ा, थाली, झांझ बजाते हुए बहुत सुरीले भजन होते हैं। जब पुरूष नहीं गाते तब महिलाएं गातीं हैं।

इस प्रकार अर्द्धरात्रि में जब चंद्रोदय होता है, भगवान के जन्म की घोषणा होती है। सभी एक दूसरे को बधाई देते हैं। 

लोग देहरी पर चढ़कर पूर्व दिशा के रहस्यमय, बादलों से ढंके आकाश में मद्धिम चन्द्रमा को पाकर  एक अलग लोक में खो जाते हैं।

घोर अंधकार में उस मद्धिम ज्योतिपुंज को देखकर तुरंत भगवान का वचन याद आता है-

यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत।

अभ्युत्थानमधर्मस्य, तदात्मानं सृजाम्यहम।।


अजवाइन, धनिया, घी और शक्कर की पंजीरी वितरित की जाती है।

भजनों का सिलसिला इसके बाद भी रात भर चलता है। प्रातः आरती होती है। सभी लोग व्रत खोलते हैं। इसके बाद सबसे लम्बी महिला भगवान को विहार सहित सिर पर धारण करती है। पूरा गाँव साथ हो जाता है।

जयजयकार होती है।  किसी नदी, सरोवर के किनारे ले जाकर शेष श्रृंगार को "बढ़ा" लिया जाता है और केवल कोपीन व एक ऊपरी वस्त्र में जल में विराजमान कर दिया जाता है। यदि कहीं जलस्रोत नहीं है तो खेजड़ी के ऊंचे वृक्ष पर चढ़ा दिया जाता है।

यह बहुत ही भावुक दृश्य होता है। विगत 24 घण्टे से उनके सानिध्य में रहकर स्त्री-पुरूष-बच्चे, सबको उनसे लगाव हो जाता है। मुस्कराती, प्यारी सी मासूम आकृति जब पोतड़े में लिपटी खिलखिलाती जल में आखिरी डुबकी लगाती है, बहुत सारे बच्चे रो पड़ते हैं। प्रायः सभी महिलाएं और लड़कियां आंसू पोंछती हुई दिखती है। और जिस घर में "आप श्री" पधारे थे, उनके भावावेश का तो कहना ही क्या।

मैं स्वयं इस दृश्य की कल्पना मात्र से रो देता हूँ। यदि उन्हें वृक्ष पर बिठाया गया है तो सभी लोग बार बार पीछे मुड़ कर मुस्कराती छलिया आकृति को देखते हैं।

सभी भावुक हैं और "आप श्री" पेड़ पर मुस्कुरा रहे हैं।

छोटे बच्चों और शिशुओं को तो इतनी पीड़ा होती है, वे उस जगह को छोड़ना ही नहीं चाहते!!

भगवान, जैसे कह रहे हैं "क्यों, इस बार भी छले गये न!! देखो मैं बड़ा निर्मोही हूँ।"

और तब बड़े बुजुर्ग समझाते हैं कि भगवान अगले वर्ष फिर आएंगे।

भरे मन से सभी लोग घरों को लौटते हैं।

इसके बाद प्रायः इतनी तेज वर्षा होती है कि सबकुछ विलीन हो जाता है।

और यही वह तत्त्व है जो युगों तक अनेक थपेड़े सहे जाने के बाद हिन्दू धर्म में बहुत भीतर तक व्याप्त है। यही वह "कुछ खास" है जो हमारी हस्ती मिटने ही नहीं देता।

यही सत्व,यही तत्व बार बार उद्घोषित करता है- 

परित्राणाय साधूनाम, विनाशाय च दुष्कृताम।

धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे।।

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