मैं सेवा निवृत्त #सैन्य_अधिकारी हूँ.
पल्टन में पहुँचने पर #वसीयत बनी.
मैंने अपने हाथों से लिखा कि मेरी मृत्यु के बाद मेरा वारिस (Next of Kin) संक्षेप में NOK कौन होगा.
माता, पिता, भाई, बहन, विवाह हुआ तो पत्नी, बच्चे हुए तो बच्चों का नाम सहित %, किसको कितना, ये मैंने अपने हाथों से लिखा।
एक अफसर ने गवाह के तौर पर हस्ताक्षर किये, एडजुटेंट ने दस्तखत किये, यूनिट कमांडर ने काउंटर साईन किया, पार्ट टू आर्डर छपा, वो कागज मेरी सेवा पुस्तिका के साथ एक अलग लिफाफे में रखा गया और सर्विस के दौरान हर समय, हर साल मुझे उस वसीयत को बदलने, अपने मन मुताबिक हेर फेर करने की अनुमति थी.
ये मेरी इच्छा थी कि मैं NOK में अपने माता-पिता, भाई बहन को शामिल करूँ या न करूँ. ये मेरी इच्छा थी की मैं पत्नी के साथ बच्चों को शामिल करूँ या न करूँ. कोई जोर जबरदस्ती नहीं.
अंशुमान के माता-पिता को अपने दिवंगत पुत्र की वसीयत का सम्मान करना चाहिए.
यही कानूनी स्थिति है.
बहुत विचार विमर्श, मंथन के बाद सेना में वसीयत का सिस्टम आया. वरना कई माता-पिता युवा विधवा पुत्र वधु को लांछन लगा कर घर से निकाल देते थे. कईयों के दुधमुंहा बच्चे भी होते थे.
चूंकि हर घर की परिस्थिति समान नहीं होती इसलिए यह निर्णय फौजी पर छोड़ा गया कि वो तय करे कि उसकी मृत्यु के उपरांत NoK कौन होगा और वसीयत बनाना अनिवार्य किया गया.
साधारण तौर पर फौजी बीमा की राशि में माँ का नाम भी पत्नी के नाम के साथ शामिल करते हैं और ग्रेच्युटी, पेंशन, आदि में सिर्फ पत्नी का नाम रखते हैं ताकि मरणोपरांत विवाद न हो।
Major रमेश उपाध्याय की post
लेकिन आज मेरे उसे वीर शहीद अंशुमन की आत्मा रो रही होगी यह विवाद सुनकर,
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