दुनिया में लड़ाई न मत की है, न मजहब की है और न ही उपासना पद्धति की है, यह लड़ाई सभ्यताओं की है, जो सेमिटिक पंथों को आधार बनाकर लड़ी जा रही है।
एक तरफ यूरोप की सभ्यता है और दूसरी तरफ अरब की। इन दोनों सभ्यताओं का लक्ष्य है कि पूरी दुनिया उनकी सभ्यता के अनुसार चले।
वास्तव में इस्लामीकरण और अरबीकरण एक दूसरे के पर्याय हैं। इस्लाम स्वीकार करने का अर्थ केवल उपासना पद्धति की स्वीकार्यता नहीं है, यह अरब के रीति-रिवाज और परम्पराओं की स्वीकार्यता है, जो इस्लाम के पूर्व से वहाँ प्रचलित थीं चाहे वह दाढ़ी रखने का तरीका हो या पगड़ी बांधने का, चाहे बुरका पहनने का हो या हिजाब का, चाहे खान-पान हो या भाषा यह सब इस्लाम के पूर्व का है, लेकिन वह आज इस्लाम का प्रतीक है और इस्लाम स्वीकार करने का अर्थ है वही सब करना जो अरब में किया जाता है।
दूसरी तरफ यूरोप की सभ्यता है, जो केवल ईसाइयत ही नहीं, बल्कि आधुनिकता के नाम पर परोक्ष आक्रमण कर रही है। उसकी भाषा आधुनिकता का पर्याय बन चुकी है, उसकी वेश-भूषा और खान-पान भी आधुनिकता के पर्याय मान लिए गए हैं। वास्तव में जिसे हम आधुनिकता समझते हैं वह हमारी मानसिक गुलामी है।
यह ठीक है कि कुछ श्रेष्ठ तत्व कहीं का स्वीकार किया जा सकता है, लेकिन सब कुछ श्रेष्ठ उन्हीं का है यह कभी नहीं स्वीकार किया जा सकता।
सभ्यताओं के विकास में देश, काल और परिस्थिति की अनुकूलता का बहुत महत्व होता है और सभ्यताएं उनके अनुसार स्वतः विकसित होती हैं, जो अनुकूल होता है वह बाहर से भी आत्मसात करती हैं, लेकिन अपने अनुकूल बनाकर।
अपनी हर वस्तु में कमी है, यह कभी नहीं स्वीकार किया जा सकता। यह हीन भावना और कमजोरी है। जो ताकतवर होता है वह अपनी हर चीज थोपने का प्रयास करता और यदि किसी समाज को मानसिक रूप से कमजोर बना दिया गया तो यह और भी सरल हो जाता है।
आज भारत के एक सामान्य से सामान्य व्यक्ति का कम से कम पचास प्रतिशत यूरोपीकरण हो चुका है। पहनवा की दृष्टि से तो निन्यानवे प्रतिशत है।
यदि किसी सभ्यता का संरक्षण करना है तो वैचारिक के साथ-साथ, व्यवहार में वेश, भाषा और भोजन का संरक्षण अनिवार्य है। मजहबी मतांतरण केवल मतांतरण नहीं है, यह सभ्यता का परिवर्तन है।
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