हार्डकोर हिंदू वोटर और नेतृत्व की ठेकुलरबाज़ी
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2014, 2019 और 2024 के लोकसभा चुनाओं में हिंदुओं के वोटिंग पैटर्न को देखें तो 2024 में भाजपा की पहले से कमज़ोर स्थिति के लिए आप किसे जिम्मेदार मानेंगे, हिंदू मतदाताओं को या भाजपा नेतृत्व को?
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सवाल उठता है कि अगर 2014 और 2019 में हिंदू वोटिंग के केंद्र में राष्ट्रनिष्ठा, कर्तव्य और त्याग हावी रहे तो मतदाताओं को क्या मिला?
समान आचार संहिता, विदेशी घुसपैठियों का निष्कासन, सरकारी नियंत्रण से हिंदू मंदिरों की मुक्ति, धार्मिक शिक्षा के मामले में हिंदुओं को गैरहिंदुओं के बराबर अधिकार या असत्य इतिहास बतानेवाली सरकारी पाठ्यपुस्तकों पर प्रतिबंध?
इनमें से कुछ भी तो नहीं।
क्या जन भावनाओं का सम्मान करने वाले फैसलों के लिए 2019 से भी प्रचंड जनादेश आवश्यक था?
क्या हिंदू वोटरों की विशलिस्ट में किसी भी कीमत पर 'सेकुलर' आर्थिक समृद्धि का मुद्दा टॉप पर था? अगर नहीं तो इस एजेंडा आइटम को किसकी जिद से टॉप पर पहुंचाया गया? इसके लिए कौन जिम्मेदार है?
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दूसरी तरफ, 2014 और 2019 के जनादेश से क्या सिर्फ धारा ३७० का क्षीणीकरण, नागरिकता संशोधन कानून और राममंदिर निर्माण ही संभव थे?
उत्तर है ' नहीं '..... क्योंकि 1991 से 1996 के बीच अल्पमत की सरकार होते हुए भी प्रधानमंत्री नरसिंह राव ने बहुत दूरगामी एवं कठिन फैसले लिए और वह भी चुप रहकर। (उनको उनके विरोधी 'मौनी बाबा' कहते थे और श्री राव ने एक बार कहा भी था कि नहीं, फैसला लेना भी एक फैसला है। इसी के तहत उन्होंने मस्जिद - ए - जन्मस्थान यानी बाबरी ढांचा का ध्वंस हो जाने दिया था। इस दृष्टि से राम मंदिर निर्माण में उनकी भूमिका किस राजनेता से कम कही जाएगी? )
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2014 से 2024 के बीच के दस वर्षों में अगर बहुमत और भारी बहुमत वाली भाजपा सरकार अपेक्षित फैसले नहीं ले पाई और दस वर्षों तक अपने लोभ -लालच को ताक पर रखनेवाला हिंदू वोटर 2024 में पुनः लोभ- लालच और संकीर्णता पर उतर आया तो ज्यादा दोषी उसका भाजपा नेतृत्व है या वह खुद?
2014 और 2019 के चुनाव परिणामों के मद्देनजर जनभावना, जनाकांक्षा और जनादेश का अपमान करने वाले भाजपा नेतृत्व को रास्ते पर लाने का कोई तरीका हो सकता है क्या? अगर 'हां' तो क्या 2014 के जनादेश का सम्मान नहीं किया जाना चाहिए?
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सवाल उठता है कि नेतृत्व पर जनादेश का सम्मान करने की जिम्मेदारी है या जनता पर नेतृत्व के लिजलिजेपन, उसकी बौद्धिक कायरता और #आत्महंता_आदर्शवाद को ढोने की मजबूरी है?
1920 में आचार्य शिवपूजन सहाय ने कलकत्ता से प्रकाशित पत्र 'मतवाला ' के एक संपादकीय में लिखा था....
"जनता पंजाब मेल पर सवार है और नेता छकरा पर"।
2014 से 2024 तक हार्डकोर हिंदू वोटर अपने नेतृत्व से आगे चल रहा था जबकि उसका नेतृत्व पूरी निर्लज्जता के साथ सेकुलरबाज़ी पर उतर आया था। इस दौरान हिंदू जितना जागृत हुआ पिछले हजार सालों में पहले कभी नहीं था। दुर्भाग्यवश आज जितना लुंज-पुंज, धर्माविमुख और बौद्धिक रूप से नपुंसक हिंदू नेतृत्व भी कभी नहीं था।
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फेसबुक समेत अन्य सोशल मीडिया मंचों पर हिंदू मतदाताओं को कोसती पोस्ट को देखकर #साम्यवादी_तानाशाही पर कटाक्ष करती एक कविता की निम्न पंक्तियां याद आ रही हैं:
"जनता को गोली मार दो,
यह प्रतिक्रियावादी हो गई है।"

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