हिटलर और दादी में क्या समानता है?
जर्मनी में भारत बनाम जर्मनी का हॉकी फाइनल हो रहा था। हिटलर आया था मैच देखने और विजेता टीम को उसने मेडल पहनाने थे। अब हिटलर को लग रहा था कि जीतेगा तो जर्मनी ही तो वो इस विश्वास में मैच देखने आ पहुंचा लेकिन बाजी भारत ने उलट दी। हिटलर ने जब देखा कि मैच में बुरी तरह हार रहे हैं तो हिटलर बीच मैच में ही उठ खड़ा हुआ और निकल लिया।
अब आ जाओ दादी पर। इसी तरह एशियाड फाइनल दिल्ली में हो रहा था। दादी और पप्पू के पापा मैच देखने आ गए। जीत के बाद उसी तरह जीतने वाली टीम को दादी को भी मेडल देने थे। लेकिन पाकिस्तान की टीम ने भारत की हालत खस्ता कर दी। ये वही मैच है जिसपर एक फर्जी चक दे इंडिया का मुस्लिम किरदार लिखा गया था जबकि असली खिलाड़ी का नाम मीर रंजन नेगी था। खैर, तो जैसे ही भारत की दुर्गति शुरू हुई तो दादी भी अपने बिटवा को लेकर निकल गयी।
कुल मिलाकर, दोनों तानाशाह ये बर्दाश्त नही कर सके कि उनके रहते उनकी टीम हार कैसे सकती है। फिर आया 83 का वर्ल्ड कप जिसमें भारत जीत गया और दादी बड़ी खुश हुई और क्रेडिट लेने पहुंच गई जैसा आप इस तस्वीर में देख सकते हैं।
ये सब इसलिए बता रहा हूँ कि दादी के पोते के गुलाम, मोदी के समय छाती कूटते हैं कि मोदी क्रेडिट लेने की कोशिश करता है। जबकि मोदी तब भी टीम के साथ खड़ा रहा जब पिछले साल भारत फाइनल हार गया। यहां तक कि मोदी ने ड्रेसिंग रूम में उनका ढांढस भी बंधाया।
और ये किसी "तानाशाह" की निशानी नही होती बल्कि यही असल मायने में लोकतंत्र है जिसके मोदी लोकनायक हैं क्योंकि लोकतंत्र ही वो होता है जिसमें हार को भी उसी तरह स्वीकार किया जाता है जैसे जीत को।
जबकि दादी वो रही है जिसने हार छोड़ो एक डिस्क्वालिफिकेशन तक नही झेला और इस देश मे आपातकाल लगा दिया था। वैसा ही इस दादी का पोता है जो सत्ता की खीज में इस देश मे केरोसिन माचिस लेकर घूमता है और बाहरी ताकतों तक से हाथ मिला लेता है।
जबकि दशकों तक विपक्ष में रहते हुए एक बार भी आपने सुना कि भाजपा ने ऐसा बयान भर दिया हो, बाहरी मदद की बात तो छोड़ ही दो।
और फिर ऐसे गुलाम हमें सिखाने की कोशिश करते हैं कि देश मे तानाशाही है और मोदी एक तानाशाह है।
--------- कल मनीष ठाकुर शो में ये किस्सा सुना तो सोचा पोस्ट ही लिख दें।

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