🙏🚩 श्री गणेशाय नमः 🚩🙏(४९२)
।। श्री हरि: ।।
[ श्रीरामचरितमानस ]
{ लंकाकाण्ड }
चौ०- कोट कँगूरन्हि सोहहिं कैसे ।
मेरु के सृंगनि जनु घन बैसे ।।
बाजहिं ढोल निसान जुझाऊ ।
सुनि धुनि होइ भटन्हि मन चाऊ ।।
वे परकोटे के कँगूरों पर कैसे शोभित हो रहे हैं, मानो सुमेरु के शिखरों पर बादल बैठे हों। जुझाऊ ढोल और डंके आदि बज रहे हैं, [ जिनकी ] ध्वनि सुनकर योद्धाओं के मन में [ लड़नेका ] चाव होता है ।।
बाजहिं भेरि नफीरि अपारा ।
सुनि कादर उर जाहिं दरारा ।।
देखिन्ह जाइ कपिन्ह के ठट्टा ।
अति बिसाल तनु भालु सुभट्टा ।।
अगणित नफीरी और भेरी बज रही है, [ जिन्हें ] सुनकर कायरों के हृदय में दरारें पड़ जाती हैं। उन्होंने जाकर अत्यन्त विशाल शरीर वाले महान् योद्धा वानर और भालुओं के ठट्ट ( समूह ) देखे ।।
धावहिं गनहिं न अवघट घाटा ।
पर्बत फोरि करहिं गहि बाटा ।।
कटकटाहिं कोटिन्ह भट गर्जहिं ।
दसन ओठ काटहिं अति तर्जहिं ।।
[ देखा कि ] वे रीछ - वानर दौड़ते हैं, औघट ( ऊँची - नीची, विकट ) घाटियों को कुछ नहीं गिनते। पकड़कर पहाड़ों को फोड़कर रास्ता बना लेते हैं। करोड़ों योद्धा कटकटाते और गर्जते हैं। दाँतों से होठ काटते और खूब डपटते हैं ।।
उत रावन इत राम दोहाई ।
जयति जयति जय परी लराई ।।
निसिचर सिखर समूह ढहावहिं ।
कूदि धरहिं कपि फेरि चलावहिं ।।
उधर रावण की और इधर श्री रामजी की दुहाई बोली जा रही है। ‘जय’ ‘जय’ ‘जय’ की ध्वनि होते ही लड़ाई छिड़ गई। राक्षस पहाड़ों के ढेर के ढेर शिखरों को फेंकते हैं। वानर कूदकर उन्हें पकड़ लेते हैं और वापस उन्हीं की ओर चलाते हैं ।।
छं०- धरि कुधर खंड प्रचंड मर्कट
भालु गढ़ पर डारहीं ।
झपटहिं चरन गहि पटकि महि भजि
चलत बहुरि पचारहीं ।।
अति तरल तरुन प्रताप तरपहिं
तमकि गढ़ चढ़ि चढ़ि गए ।
कपि भालु चढ़ि मंदिरन्ह जहँ तहँ
राम जसु गावत भए ।।
प्रचण्ड वानर और भालू पर्वतों के टुकड़े ले - लेकर किले पर डालते हैं। वे झपटते हैं और राक्षसों के पैर पकड़कर उन्हें पृथ्वी पर पटककर भाग चलते हैं और फिर ललकारते हैं। बहुत ही चंचल और बड़े तेजस्वी वानर - भालू बड़ी फुर्ती से उछलकर किले पर चढ़ - चढ़कर गए और जहाँ - तहाँ महलों में घुसकर श्री रामजी का यश गाने लगे ।
दो०- एकु एकु निसिचर गहि
पुनि कपि चले पराइ ।
ऊपर आपु हेठ भट
गिरहिं धरनि पर आइ ।।४१।।
फिर एक - एक राक्षस को पकड़कर वे वानर भाग चले। ऊपर आप और नीचे [ राक्षस ] योद्धा - इस प्रकार वे [ किले से ] धरती पर आ गिरते हैं ।।
चौ०- राम प्रताप प्रबल कपिजूथा ।
मर्दहिं निसिचर सुभट बरूथा ।।
चढ़े दुर्ग पुनि जहँ तहँ बानर ।
जय रघुबीर प्रताप दिवाकर ।।
श्री रामजी के प्रताप से प्रबल वानरों के झुंड राक्षस योद्धाओं के समूह के समूह मसल रहे हैं। वानर फिर जहाँ - तहाँ किले पर चढ़ गए और प्रताप में सूर्य के समान श्री रघुवीर की जय बोलने लगे ।।
चले निसाचर निकर पराई ।
प्रबल पवन जिमि घन समुदाई ।।
हाहाकार भयउ पुर भारी ।
रोवहिं बालक आतुर नारी ।।
राक्षसों के झुंड वैसे ही भाग चले जैसे जोर की हवा चलने पर बादलों के समूह तितर - बितर हो जाते हैं। लंका नगरी में बड़ा भारी हाहाकार मच गया। बालक, स्त्रियाँ और रोगी [ असमर्थता के कारण ] रोने लगे ।।
सब मिलि देहिं रावनहि गारी ।
राज करत एहिं मृत्यु हँकारी ।।
निज दल बिचल सुनी तेहिं काना ।
फेरि सुभट लंकेस रिसाना ।।
सब मिलकर रावण को गालियाँ देने लगे कि राज्य करते हुए इसने मृत्यु को बुला लिया। रावण ने जब अपनी सेना का विचलित होना कानों से सुना, तब ( भागते हुए ) योद्धाओं को लौटाकर वह क्रोधित होकर बोला - ।।
जो रन बिमुख सुना मैं काना ।
सो मैं हतब कराल कृपाना ।।
सर्बसु खाइ भोग करि नाना ।
समर भूमि भए बल्लभ प्राना ।।
मैं जिसे रण से पीठ देकर भागा हुआ अपने कानों सुनूँगा, उसे स्वयं भयानक दोधारी तलवार से मारूँगा। मेरा सब कुछ खाया, भाँति - भाँति के भोग किए और अब रणभूमि में प्राण प्यारे हो गए ! ।।
उग्र बचन सुनि सकल डेराने ।
चले क्रोध करि सुभट लजाने ।।
सन्मुख मरन बीर कै सोभा ।
तब तिन्ह तजा प्रान कर लोभा ।।
श्र रावण के उग्र ( कठोर ) वचन सुनकर सब वीर डर गए और लज्जित होकर क्रोध करके युद्ध के लिए लौट चले। रण में [ शत्रु के ] सम्मुख ( युद्ध करते हुए ) मरने में ही वीर की शोभा है। [ यह सोचकर ] तब उन्होंने प्राणों का लोभ छोड़ दिया ।।
दो०- बहु आयुध धर सुभट सब
भिरहिं पचारि पचारि ।
ब्याकुल किए भालु कपि
परिघ त्रिसूलन्हि मारि ।।४२।।
बहुत से अस्त्र - शस्त्र धारण किए, सब वीर ललकार-ललकारकर भिड़ने लगे। उन्होंने परिघों और त्रिशूलों से मार - मारकर सब रीछ - वानरों को व्याकुल कर दिया ।।
................शेष
।। जय जय श्रीसीतारामजी ।।
।। जय हो मेरे हनुमानजी ।।
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