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Friday, August 9, 2024

#आह_बंगाल बंगाल में पिता-पुत्र द्वय थे- देवेंद्रनाथ ठाकुर और रवींद्रनाथ ठाकुर।

 #आह_बंगाल 


बंगाल में पिता-पुत्र द्वय थे- देवेंद्रनाथ ठाकुर और रवींद्रनाथ ठाकुर।


पिता देवेंद्रनाथ ठाकुर ने बंगाल में 18वीं सदी में वो काम शुरू किया जिसे बहुत बाद महाराष्ट्र में डॉक्टर केशव बलिराम हेडगेवार ने शुरू किया। देवेंद्रनाथ ठाकुर हिन्दू किशोरों और तरूणों के शारीरिक सौष्ठव (बॉडी बिल्डिंग) के आग्रही थे और इसकी आवश्यकता समझते थे, इसलिए काव्य, नृत्य और विविध ललित कला में प्रवीण बंग युवकों को उनकी रुचि के प्रतिकूल भी उन्होंने अखाड़ों में भेजना शुरू हुआ और बंगाल में एक नवीन जागरण का उषाकाल शुरू हुआ।


परंतु इन्हीं देवेंद्रनाथ ठाकुर के पुत्र हुए रवींद्रनाथ टैगोर...... बंग समाज में 100 में से अगर  एक 1 ने देवेंद्रनाथ को स्वीकार किया तो 99 रवींद्र की तरफ चले गए और परिणाम....... अखाड़े में पौरुष प्रदर्शन की जगह पुनः प्रेम, विरह, प्राकृतिक सौंदर्य और प्रांतीयता की भावना के ज्वार ने ले ली।


इसी बंगाल में दो कवि द्वय थे - बंकिमचंद्र चटर्जी और नजरूल इस्लाम


बंकिम ने "आनंद मठ" नाम से एक महाकाव्य रचा। विविध ललित कला में प्रवीण बंग युवकों और युवतियों में भवानंद और कल्याणी (आनंद मठ के अमर पात्र जिनके मुख से वन्दे मातरम् उच्चारित हुआ था) बनने की होड़ लग गई। परिणाम बंगाल ने भारत के स्वाधीनता समर में सबसे अधिक क्रांतिकारी दिए।


परंतु फिर आए नजरूल इस्लाम......उन्होंने एक कविता लिखी - मोरा एकी ब्रिंते दुति कुसुम हिंदू-मुसलमान, मुस्लिम तर नयन मणि, हिंदू ताहर प्राण। (हम एक डंठल पर दो फूल हैं, एक हिंदू और दूसरा मुसलमान है / जबकि मुसलमान आंख की पुतली है, हिंदू आत्मा है)" 


बंकिम के वन्दे मातरम् को आत्मसात कर चुके बंग समाज ने पुनः वही किया। वन्दे मातरम् का विस्मरण कर इस कविता को आत्मसात कर किया। परिणाम .....वहां ऐसा समाज तैयार हुआ जिसकी झलक आप तस्लीमा के नॉवेल लज्जा में कॉमरेड सुरंजन दत्त, उसकी बहन और उसके उनके कॉमरेड पिता सुधामय दत्त के रूप में देख सकते हैं।


कितना और क्या लिखूं बंगाल पर?


इस बंगाल ने उस संन्यासी को विस्मृत कर दिया, जिनका केवल चित्र मात्र ही आपके मन मस्तिष्क को हिंदुत्व के तेज से आलोकित कर देता है.......बंगाल ने उस संन्यासी "स्वामी प्रणवानंद" को भी भुला दिया। इस समाज ने डायरेक्ट एक्शन डे के मुख्य सिपहसालारों में एक "बंगबंधु मुजीब" के लिए आहें भरी और अपने गौरव के रक्षक गोपाल पाठा को भूला दिया।


तो जो हो रहा था वो तो होना ही था।


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