मुखरता
राष्ट्रवादी वर्ग अभिनेता नसीरुद्दीन शाह से असहमत रहें और कितना भी कुछ लिख लें। किंतु नो डाउट शाह मुखर वक्ता है कोई मुद्दा रहे और मीडिया मुँह में माइक लगा दें या वे स्वयं बाईट देना चाहते है तो देते हैं।
हालिया वक्तव्य में पीएम के सिर पर टोपी देखने की तमन्ना है इसी पैमाने से उन्हें यकीन होगा। बाकी घर, गैस आदि योजनाएँ देते रहिए कोई फर्क नहीं पड़ेगा। खैर
शाह का पुराना इंटरव्यू देखा, नीरज पांडे की ए वेनसडे को लेकर कहा कि स्क्रिप्ट अच्छी थी, छह महीने तक पड़ी रही। ग्रीन सिग्नल देने के बाद लेखक-निर्देशक से पूछा सभी आतंकी एक ही है इसमें तमिलियन क्यों नहीं रखा। तब नीरज पांडे ने क्या डील की, शायद जिम्मी शेरगिल के किरदार में फाइनल हुई हो।
नसीर ने नीरज के समक्ष प्रश्न ए वेनसडे के संदर्भ में किया था लेकिन पांडे के भीतर इतना बदलाव आया कि आगे वाले एकाद कंटेंट को छोड़ दें। इसके ग्रे शेड्स वाले किरदारों के रिकवर में अगले कंटेंट में पॉजिटिव वेव दिया है।
स्पेशल छब्बीस मनोज वाजपेयी, बेबी से डैनी, नाम शबाना तो प्योर है, स्पेशल ओप्स और द फ्री लांसर तक पांडे चरणों में लेटे रहे। रील में पॉजिटिव कर गये, लेकिन रियल में सबसे बड़े संवैधानिक पद पर बैठकर देश के खुफिया राज बेचें गये। ऐसे खुलासे हुए है।
दूसरी तरफ देखें।
बॉलीवुड में चोर-लुटेरे, बलात्कारी, ग्रे शेड्स में तिलकधारी रखें गये। तब किसी बॉलीवुड अभिनेता ने नहीं पूछा कि तिलक क्यों रखा है। या खलनायक में सिर्फ तिलकधारी ही क्यों है। इन्हें किसी से कोई मतलब न रहा।
बिग बी ने दीवार में सवाल नहीं किया, आखिर विजय मंदिर में क्यों नहीं जा सकता है नास्तिक है तो पूर्णतया क्यों नहीं है। सेलेक्टिव क्यों है। प्रसाद तक नहीं लेता किंतु बिल्ला अवश्य पहने रखता है।
मैंने अभी कोई पोस्ट पढ़ी थी उसमें नसीर ने अमिताभ के लिए वक्तव्य दिया उसपर तंज था। लेखक नजरिया हो सकता है। पसंदीदा हो तो डिफेंड करना बनता है लेकिन तथ्य ऐसे भी देखे तो असल विश्लेषण होगा। जो अपने इधर मजबूती से खड़ा है और मुखर है। आपके वाले मौनी बने रहे है तो कैसे बचाव होगा। सिनेमा को समाज का दर्पण कहा जाता है। असंतुलन से आईना टूट कर बिखर जाएगा। बॉलीवुड ढह गया है और इसके कारण में मौन अवस्था है।
कुछ लोग माहौल में परिवर्तन देखकर उठें है अब बहुत देर हो चुकी है। पुनः माहौल बदलेगा तो वे भी उसी स्टैंड पर खड़े होंगे। पक्ष-विपक्ष परिस्थतियों में एक ही स्टैंड रखे, वह असल है।
ऐसे ऑब्जेक्शन नहीं रहे तो उनकी हिम्मत बढ़ती गई बल्कि प्रॉपगैंडा और नैरेटिव के तहत चलते रहे। कभी किसी मुद्दे पर शब्द तक न कहा, निःशब्द रहे। रोहित शेट्टी को सूर्यवंशी में देखिए, विलन में आतंकवाद तो रखा है। उसके हरजाने में इतना सेकुलरिया मामला रखा है, देखकर हैरानी निकलती है।
सोचें, आतंकवाद पर नसीर ने खुलकर पूछ लिया और लेखक साहब ऐसे सेकुलर बने है कि अभी तक ऐसा जारी है। ऐसा होना चाहिए, तभी निष्पक्षता आएगी। परंतु मुखर और मौन साथ नहीं चल सकता है बैलेंस बिगड़ेगा और फिर एकतरफा सेकुलर गेम चलेंगे।

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