मेरे एक घनिष्ठ मित्र सरकारी बैंक में मैनेजर हैं.
तो, एक बार यूँ ही बैठे-बैठे मैंने उनसे पूछ लिया कि... अच्छा अनिल जी..!
मान लो, कोई बैंक से कर्ज ले ले और भाग जाए तो क्या होगा ??
इस पर अनिल ने सिम्पली कहा कि : क्या होगा ?
कुछ नहीं.
उनका जबाब सुनकर मैंने आश्चर्य से पूछा : अरे, बैंक केस-उस नहीं करेगा ?
तो, मित्र ने कहा : बैंक तो करबे करेगा.
नोटिस भी देगा और केस भी करेगा.
लेकिन, उससे होना-जाना कुछ नहीं है.
क्योंकि, जब सामने वाला भागिए जाएगा तो केस किस पर करेगा..?
और, उसको खोजेगा कहाँ ??
तो, फिर मैंने पूछा : तब तो बैंक का बहुत पैसा डूबता होगा इसमें ?
मित्र : डूबबे करता है.
माल्या-फाल्या भागा कि नहीं भागा ??
इसके बाद उन्होंने कहा कि : जानते हो ?
अगर तुम बेईमान हो और बैंक का पैसा लेकर एकदम भागिए जाओगे तो फिर बैंक कुछ नहीं कर पायेगा.
या फिर उल्टे, बैंक वाले तुम्हारे ही हाथ-पैर जोड़ेंगे कि... थोड़ा कम-बेसी में एकाउंट सेटलमेंट करवा लें.
लेकिन, अगर तुम ईमानदार हो और बैंक का कर्ज लौटाना चाहते हो..
लेकिन, आर्थिक क्राइसिस में फंसे हुए हो तो फिर बैंक वाले तुम्हें नोच खाएंगे..!
रोज दो नोटिस पकड़ा देगा या फोन कर देगा कि इस महीने क़िस्त क्यों नहीं भरे ???
तुम्हारा जीना हराम कर देंगे.
हालांकि ये कहानी तो उसने बताई थी बैंक की.
लेकिन, जब मैं सोचता हूँ तो मुझे लगता है कि उसने ये चित्रण बैंक का नहीं बल्कि हमारे समाज का कर दिया था.
उदाहरण के तौर पर.... हमारे भारत में जो कोई हिंसक है उसके बारे में तो किसी को बोलने की हिम्मत नहीं होती है कि ... हाँ, वो हिंसक है.
लेकिन, जो ईमानदार अर्थात सहिष्णु हैं उन्हें रोज हिंसक बताया जाता है.
कारण बिल्कुल स्पष्ट है कि... अगर वे हिंसक को हिंसक कहेंगे तो दुबारा कुछ कहने के लिए बचेंगे ही नहीं.
जबकि, इधर वाले को वे कुछ भी कहकर आराम से हंसी-ठिठोली कर सकते हैं.
और, उसके हिंसक कहने पर अपने नेता मोई और शाह को सभापति से आपत्ति दर्ज करवाते देख जो हंसी उड़ा रहे हैं..
वे अच्छी तरह से समझ लें कि... मोई और शाह तो चलो कम से कम इतना भी कर रहे हैं.
लेकिन, तुम क्या कर रहे हो ???
क्योंकि, उसने मोई या शाह को नहीं बल्कि पूरे समाज को बोला था.
यहाँ, क्या कर रहे हो से तात्पर्य है कि.... अगर उसने कहीं हिंसक से कह दिया होता तो आज सारी सड़कें विरोध से पट गई होती..
और, गली-गली में उसके खिउ नारे लग रहे होते.
स्थिति इतनी खराब हो चुकी होती कि... आज वो गली-गली घूम के अपनी जान की भीख मांग रहा होता.
और, प्रधानमंत्री-राष्ट्रपति वगैरह संसद में आपत्ति दर्ज करवाने की जगह शांति की अपील कर रहे होते.
लेकिन, वे अच्छी तरह जानते हैं कि किसे क्या बोला जाना है.
इसीलिए, इस पक्ष के नेता को इस अपमान पर खून का घूंट पीकर सिर्फ आपत्ति दर्ज करवाने तक ही सीमित रह जाना पड़ता है.
ये उनके लिए नहीं... बल्कि, हमारे लिए.. हमारे पूरे समाज के लिए शर्म की बात है.
और, हिंसक को क्यों ??
उसने , अगर हिन्दू की जगह बाभन, राजपूत, दलित, गुर्जर आदि में से भी किसी का नाम ले लिया होता तो आज सड़कों पर तांडव हो रहा होता.
लेकिन, हिन्दू नाम से किसी के खून में कोई उबाल नहीं आया.
सुनने में तो बुरा लगेगा... लेकिन, हमारे समाज की यही सच्चाई है जिसे मोई जी अच्छी तरह जानते हैं.
इसीलिए, वे लोग ज्यादा आक्रामक नहीं होते हैं.
क्योंकि, आखिर वे आक्रामक फैसला लें भी तो आखिर किसके दम पर ???
क्या अपने उसी समाज के दम पर....
जिसके लिए अपने स्वाभिमान से ज्यादा फ्री की बिजली, सब्सिडी वाली पेट्रोल और एक छोटी-मोटी सरकारी नौकरी की चिंता रहती है ????
जय महाकाल...!!!
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