11 अगस्त / बलिदान-दिवस
अमर बलिदानी खुदीराम बोस...भारतीय स्वतन्त्रता के इतिहास में अनेक कम आयु के वीरों ने भी अपने प्राणों की आहुति दी है उनमें खुदीराम बोस का नाम स्वर्णाक्षरों में लिखा जाता है उन दिनों अनेक अंग्रेज अधिकारी भारतीयों से बहुत दुर्व्यवहार करते थे ऐसा ही एक मजिस्ट्रेट किंग्सफोर्ड उन दिनों मुज्जफरपुर बिहार में तैनात था...वह छोटी छोटी बात पर भारतीयों को कड़ी सजा देता था अतः क्रान्तिकारियों ने उससे बदला लेने का निश्चय किया... कोलकाता में प्रमुख क्रान्तिकारियों की एक बैठक में किंग्सफोर्ड को यमलोक पहुँचाने की योजना पर गहन विचार हुआ उस बैठक में खुदीराम बोस भी उपस्थित थे यद्यपि उनकी अवस्था बहुत कम थी फिर भी उन्होंने स्वयं को इस खतरनाक कार्य के लिए प्रस्तुत किया उनके साथ प्रफुल्ल कुमार चाकी को भी इस अभियान को पूरा करने का दायित्व दिया गया... योजना का निश्चय हो जाने के बाद दोनों युवकों को एक बम तीन पिस्तौल तथा 40 कारतूस दे दिये गये दोनों ने मुज्जफरपुर पहुँचकर एक धर्मशाला में डेरा जमा लिया कुछ दिन तक दोनों ने किंग्सफोर्ड की गतिविधियों का अध्ययन किया इससे उन्हें पता लग गया कि वह किस समय न्यायालय आता-जाता है पर उस समय उसके साथ बड़ी संख्या में पुलिस बल रहता था अतः उस समय उसे मारना कठिन था... अब उन्होंने उसकी शेष दिनचर्या पर ध्यान दिया किंग्सफोर्ड प्रतिदिन शाम को लाल रंग की बग्घी में क्लब जाता था...दोनों ने इस समय ही उसके वध का निश्चय किया 30 अपै्रल 1908 को दोनों क्लब के पास की झाड़ियों में छिप गये शराब और नाच-गान समाप्त कर लोग वापस जाने लगे अचानक एक लाल बग्घी क्लब से निकली...खुदीराम और प्रफुल्ल की आँखें चमक उठीं वे पीछे से बग्घी पर चढ़ गये और परदा हटाकर बम दाग दिया इसके बाद दोनों फरार हो गये... परन्तु दुर्भाग्य की बात कि किंग्सफोर्ड उस दिन क्लब आया ही नहीं था उसके जैसी ही लाल बग्घी में दो अंग्रेज महिलाएँ वापस घर जा रही थीं क्रान्तिकारियों के हमले से वे ही यमलोक पहुँच गयीं पुलिस ने चारों ओर जाल बिछा दिया बग्घी के चालक ने दो युवकों की बात पुलिस को बतायी खुदीराम और प्रफुल्ल चाकी सारी रात भागते रहे...भूख प्यास के मारे दोनों का बुरा हाल था वे किसी भी तरह सुरक्षित कोलकाता पहुँचना चाहते थे... प्रफुल्ल लगातार 24 घण्टे भागकर समस्तीपुर पहुँचे और कोलकाता की रेल में बैठ गये उस डिब्बे में एक पुलिस अधिकारी भी था...प्रफुल्ल की अस्त व्यस्त स्थिति देखकर उसे संदेह हो गया मोकामा पुलिस स्टेशन पर उसने प्रफुल्ल को पकड़ना चाहा पर उसके हाथ आने से पहले ही प्रफुल्ल ने पिस्तौल से स्वयं पर ही गोली चला दी और बलिपथ पर बढ़ गये...इधर खुदीराम थक कर एक दुकान पर कुछ खाने के लिए बैठ गये वहाँ लोग रात वाली घटना की चर्चा कर रहे थे कि वहाँ दो महिलाएँ मारी गयीं यह सुनकर खुदीराम के मुँह से निकला... तो क्या किंग्सफोर्ड बच गया...यह सुनकर लोगों को सन्देह हो गया और उन्होंने उसे पकड़कर पुलिस को सौंप दिया...मुकदमे में खुदीराम को फाँसी की सजा घोषित की गयी...11 अगस्त 1908 को हाथ में गीता लेकर खुदीराम हँसते-हँसते फाँसी पर झूल गये...तब उनकी आयु 18 साल 8 महीने और 8 दिन थी...जहां वे पकड़े गये उस पूसा रोड स्टेशन का नाम अब खुदीराम के नाम पर रखा गया है...
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